
कृषि विज्ञान केन्द्र, ग्रमोत्थान विद्यापीठ, संगरिया 18वां गाजर घास जागरुकता सप्ताह का आयोजन दिनांक 16-22 अगस्त, 2023 तक केन्द्र पर आयोजित किया जा रहा है। केन्द्र के वरिष्ठ वैज्ञानिक एवं अध्यक्ष डॉ. अनूप कुमार ने इस दौरान कृषि स्नातक (अंतिम वर्ष) के छात्र, कृषक इत्यादि को जागरुक करते हुये बताया की इस खरपतवार को गाजर घास (पार्थेनियम हिस्टेरोफोरस) जिसे आमतौर पर सफेद टोपी, असाड़ी, गाजरी, चटर चांदनी आदि नामों से जाना जाता है। यह एक विदेशी खरपतवार है। भारत में पहली बार 1950 के दशक में दिखाई दिया। इसके बाद यह रेलवे ट्रेक, सड़कों के किनारे, बंजर भूमि, बागों आदि फसलीय और गैर फसलीय क्षेत्रों को प्रभावित कर रहा है। इसमें लगभग 5000-25000 बीज प्रति पौधा पैदा करने की क्षमता होती है। गाजरघास को सबसे अधिक खतरनाक खरपतवारों में गिना जाता है। क्योंकि यह मनुष्य व पशुओं में त्वचा रोग अस्थमा और ब्रोंकाइटिस जैसे रोगों का कारण बनता है। इसके सेवन से पशुओं में अत्यधिक लार और दस्त के साथ मुंह में छाले हो जाते है।। चरागाहों और वन क्षेत्रों में इसके फैलने से चारे की उपलब्धता धीरे धीरे कम होती जा रही है।
इस हेतु केन्द्र के समस्त स्टॉफ, रेडी छात्रों ने केन्द्र के फार्म पर गाजर घास के उन्मूलन करने का संकल्प लिया। इस जागरुकता सप्ताह के दौरान प्रतिदिन दो घण्टे शारीरिक श्रम कर इसे केन्द्र पर से हटाने की शपथ ली।
केन्द्र के पौध संरक्षण वैज्ञानिक डॉ. उमेश कुमार ने गाजर घास के प्रबन्धन के उपायों की जानकारी दी तथा बताया कि गाजर घास के प्राकृतिक शत्रुओं, मुख्यतः कीटों, रोग के जीवाणुओं एवं वनस्पतियों द्वारा जैसे मैक्सिकन बीटल (जाइगोग्रामा बाइकोलोराटा) नामक केवल गाजर घास ही खाते है इन्हें गाजर घास से ग्रसित स्थानों पर छोड़ देना चाहिये। प्रतिस्पर्द्धी वनस्पतियों जैसे चकौड़ा, हिप्टिस, जंगली चौलाई आदि से गाजर घास को आसानी से विस्थापित किया जा सकता है। खरपतवारनाशी के प्रयोग से इस खरपतवार का नियंत्रण आसानी से किया जा सकता है। जैसे डाइयूरान, मेट्रील्यूजिन, 2,4-डी, ग्लाइफोसेट आदि प्रमुख हैं।