
“आइए जानते हैं चंडीगढ़ शहर के बारे में विस्तारपूर्वक ‘जन संदेश’ के संस्करणों में”
गतांक से आगे… वैसे लाहौर छिन जाने के बाद नई राजधानी के लिए अनेक शहरों के नए सुझाए गए थे। इनमें अमृतसर का नाम भी था। मगर शुरुआती दौर में ही यह नाम रद्द हो गया था। इस पर अंतिम निर्णय के लिए एक स्थायी समिति गठित की गई थी। समिति के सामने जो प्रस्ताव आए, उनमें जि़ला होशियारपुर का एक भूखंड और दोआबा के फिल्लौर व गोराया के मध्य एक भूखंड शामिल थे। मगर अधिकांश सदस्यों को ये प्रस्ताव पसंद नहीं आए।
आ$िखर नज़रें जिला अम्बाला के इसी भूखंड पर टिकीं। इस भूखंड के कुछ गांवों में गन्ने, गेहूं व टमाटर की भरपूर खेती भी होती थी। वैसे भी इन गांवों में तब भी लगभग 20 हजार किसान भी बसे हुए थे। विरोध के स्वर स्वाभाविक थे। भूमि अधिग्रहण के खिला$फ विरोध के स्वर 1947 के पूर्वाद्र्ध में ही आरंभ हुए थे। ये सिलसिला 1950 में तब तक चला जब तक कि किसानों को उनकी ज़मीन के बदले में वैकल्पिक ज़मीन नहीं मिल गई। विरोध का तीसरा स्वर 1960 और 1970 में उभरा जब लोगों को अपने लिए बेहतर मुआविज़े की संभावनाएं दिखाई देने लगी।
पहले चरण में तत्कालीन गोपीचंद भार्गव-मंत्रिमंडल ने उजाड़े हुए किसानों एवं ग्रामीणों के लिए वैकल्पिक कृषि भूमि व आवास आदि का आवंटन कर दिया था। उसी वर्ष नई सरकार का गठन हुआ। यह सरकार अधिग्रहित भूमि पर नई राजधानी बनाने के पक्ष में नहीं थी। यह सरकार चाहती थी कि नई राजधानी अम्बाला छावनी के आसपास बने। मगर तब तक चंडीगढ़ क्षेत्र की प्रस्तावित भूमि पर निर्माण-सामग्री का आना भी आरंभ हो चुका था। ठेकेदारों का चयन भी लगभग हो गया था। जलवायु, दो छोटी-छोटी उपनदियों ‘पटियाली की रौ’ और सुखना ‘चो’ की समीपता भी इसी स्थान के पक्ष में थी। यह स्थान अंतर्राष्ट्रीय सीमा से भी का$फी दूर था। सुखना चो इसके पूर्व में थी जब कि ‘पटियाला की रौ’ पश्चिम में थी। मुख्य बात यह थी कि प्रधानमंत्री स्वयं इसी भूमि का निरीक्षण कर चुके थे। वह बार-बार कहते, ‘यह शहर, अपने भविष्य में हमारी आस्था का प्रतीक बनेगा।’
संयोगवश उन दिनों इस ‘कैपिटल-प्रोजैक्टर’ को ही (1949 में) एक कर्मठ आईसीएस अधिकारी पीएन थापर को यहां का ‘चीफ कमिश्नर’ नियुक्त किया जा चुका था। उनके प्रमुख सहयोगी चीफ इंजीनियर पीएल वर्मा भी अपने विषय व कार्यक्षेत्र के प्रति पूरी तरह समर्पित माने जाते थे। ‘राजधानी-परियोजना’ का मंत्रिमंडल में अलग विभाग था। उसके मंत्री गुरबचन सिंह बाजवा भी इस नई राजधानी के प्रति अति उत्साही थे। केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री राजकुमारी अमृत कौर भी इस नवनिर्माण में गहरी दिलचस्पी ले रही थीं, क्योंकि निर्माण का केन्द्र उनके गृह प्रदेश को एक नई पहचान देने वाला था।
चंडीगढ़ निर्माण के साथ भले ही ली-कार्बूजिए का नाम जुड़ा, मगर इसका पहला ‘मास्टर प्लान’ अल्बर्ट मायर और मैथ्यू नोविकी ने तैयार किया था। अभी अंतिम रूप दिया ही जा रहा था कि मैथ्यू एक हवाई हादसे में जान गंवा बैठा। मायर को इससे गहरा आघात लगा। उसके नए सहयोगी की तलाश की, मगर मैथ्यू का सही विकल्प उभर नहीं पाया।
प्रख्यात लेखक मुल्खराज आनंद उन दिनों ‘मार्ग’ (एमएआरजी) नामक पत्रिका निकालते थे। पीएन थापर उनके न केवल गहरे मित्र थे बल्कि उनकी प्रतिभा के भी कायल थे। ‘मार्ग’ से जुड़े थे उस समय के प्रख्यात ‘आर्किटैक्ट’ $फज़लभाई। उनका सुझाव था कि भारत में उस समय कोई भी ऐसा ‘आर्किटैक्ट’ नहीं था, जो ‘ऐसे व्यापक कैनवस से न्याय’ कर सके। $फज़लभाई के सुझाव पर ही यूरोप में 1950 में योग्य ‘आर्किटैक्ट’ की तलाश आरंभ हुई। वहां पेरिस में ‘ली कार्बूजिए’ का नाम सामने आया। बात हुई और कार्बूजिए के साथ पियरे ’यानरैट को भी अनुबंधित किया गया। पहले चरण में जिस टीम ने व्यापक कार्य किया, उसमें आर्किटैक्ट एनएस लाम्बा, जेएस देथे, एमएन शर्मा, प्रभा वॉकर, बीघी माथुर और आदित्य प्रकाश शामिल थे।
चर्चित आईएएस अधिकारी व पीएन थापर के उत्तराधिकारी एमएस रंधावा का नाम भी उसी सूची में है, जिसमें इस अद्भुत नगर को बसाने वाली महत्वपूर्ण शख्सियतें दर्ज हैं। रंधावा चंडीगढ़ के योजना-प्रारूप को काव्यात्मक और शरीर विज्ञान से जुड़ा हुआ कहते थे। वैसे कार्बूजिए का मुख्य प्रारूप भी यही था। ‘कैपिटल’ के प्रमुख भवनों (सचिवालय, विधानसभा और हाई कोर्ट) को वह इस मनुष्य रूपी प्रारूप का शीर्ष मानते थे। सैक्टर-17 व आसपास के व्यापारिक क्षेत्र, इसे ‘मनुष्य’ का ‘दिल’ माना गया था। औद्योगिक क्षेत्र को ‘हाथ’ माना गया था, यूनिवर्सिटी, पीजीआईएमआर इंजीनियरिंग कॉलेज व ‘म्यूजि़यम’ को ‘मस्तिष्क’ माना गया था। सडक़-प्रणाली में 7-वी की व्यवस्था को ‘धमनियां’ व ‘शिराएं’ माना गया। बिजली-प्रणाली की तुलना ‘नसों’ से की गई थी और उत्तर से दक्षिण की ओर फैले हरियाले क्षेत्र को ‘$फे$फड़े’ माना गया।
अप्रैल 1952 में जब पंडित नेहरू निर्माण कार्य की प्रगति देखने आए, तब तक इसका स्वरूप काफी हद तक उभर चुका था। आ$िखर 7 अक्तूबर 1953 को इस शहर का औपचारिक लोकार्पण, तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद द्वारा किया गया। पहली बार 1 अप्रैल 1954 को इसे रेल संपर्क मिला। दरअसल इस शहर के निर्माण की गाथा, व्यावहारिक राजनीति व उस समय के राजनीतिज्ञों की कर्मठ संकल्पशीलता की गाथा है। अब थोड़ा उन तकनीकी शख्सियतों की विशेषताओं व देन का भी आकलन कर लें।