
नदी सिंदूरी- देहात की दुनिया का यथार्थ साक्षात्कार

‘नर्मदा’ नदी की सहायक नदी ‘सिंदूरी’ के किनारे बसे गोंड आदिवासी बहुल एक छोटे से गांव मदनपुर के वर्ष 1993-94 के जीवन घटनाचक्र और संस्मरणों की पृष्ठभूमि में रचित शिरीष खरे का कहानी संग्रह ‘नदी सिंदूरी’, पाठकों के मन को उनके गांवों की ओर ले चलता है। सर्वप्रथम, इस पुस्तक के आवरण पृष्ठ फोटोग्राफर को साधुवाद, जिन्होंने जीवन और अनंत की एक अद्भुत यात्रा को दर्शाता सा एक बेहतरीन दृश्य खींचा है, जिसमें एक नाविक सूर्य किरणों के प्रकाश से सुसज्जित स्वर्णिम नदी में नाव खे रहा है।
‘नदी सिंदूरी’ की छोटी-छोटी कहानियां, देहाती जीवन की सरलता, प्रेम, करुणा, गरीबी, कठिनाइयां, ईमानदारी और कठोरता का एक बेहतरीन वर्णन है। ‘राजपाल प्रकाशन’ से छपी इस किताब की सभी कहानियां बहुत ही अच्छी बन पड़ी हैं और लेखक की मनोवैज्ञानिक धरातल पर पात्रों के जीवन को सहेजने की उत्कृष्ट क्षमता को दर्शाती हैं ।
कहानी संग्रह में बुंदेलखंडी देहाती बोली के शब्दों का काफी उपयोग किया गया है, जो न केवल पढ़ने में बहुत जीवंत लगता है अपितु पाठकों को कहीं एक गहरे स्तर पर गांव से एकाकार करता हुआ उसकी माटी से जोड़ता है। गांव में रह रहे ग्रामीणों अथवा जीविका की तलाश में गांव से दूर निकल आए गांव के बाशिंदों के मन की किसी गहराई में कहीं न कहीं सदैव उनका गांव बसा ही रहता है। यह संग्रह ऐसे ही असंख्य लोगों को उनकी जड़ों, माटी, पूजा स्थलों, खेत-खलिहान, पीपल, बरगद, नदी, पोखर, तालाब, कुआं, मवेशी, चौपाल, घर, द्वार, देहरी तथा रिश्ते-नातों की एक अनोखी दुनिया में ले जाता है।
इस संग्रह की पहली कहानी ‘हम अवधेश का शुक्रिया अदा करते हैं’ में ग्रामीण परिवेश के सामाजिक द्वंद और जटिलताओं के मध्य लौंडा डांस वाली रामलीला के दो पुरुष पात्रों के बीच उपजे गहरे प्रेम को न केवल बड़े ही अनोखे ढंग से दर्शाया गया है अपितु गांव के धनाढ्य ताकतवर वर्ग के अमानवीय, क्रूर और समलैंगिक संबंध की चेष्टा करने वाले विभस्त रूप को भी उजागर किया है।
दूसरी कहानी ‘कल्लो तुम बिक गई’ में बिकने वाली अपनी गाय के प्रति एक बालक की गहरी संवेदनशीलता और प्रेम को बड़ी मार्मिकता से व्यक्त किया गया है और कहानी के अंत में बालक के विद्यालय से लौटने से पूर्व ही गाय के बिक कर चले जाने की टीस और दर्द तथा अंतिम बार उसे देख पाने के लिए बहुत दूर तक दौड़ पड़ने की असफल चेष्टा को बखूबी दर्शाया गया है। कुछ वाक्य ऐसे बन पड़े हैं, जो कहीं अंदर तक छू जाते हैं, जैसे कि, ‘हमें याद कर रंभाना मती उतो तुम’, ‘और कल्लो के गले में बंधी पीतल की घंटी टनटनाती रहती’, ‘फिर उसके साथ बिताई गईं सुखद स्मृतियां ही साथ ही रहेंगी दुख पहुंचाने के लिए’, ‘कल्लो को रहन दो न, का इते नुकसान पहुंचा रही, बूढ़ी होके मरहे तो घरई में न’, ‘तब किसान गाय, भैंस, बैल, बछड़े को परिवार के अन्य सदस्य की तरह बुढ़ापे तक संभाला करते थे और यह बात कल्पना से बाहर की थी कि बुढ़ापे में वे गाय को गौशाला के भरोसे छोड़ देंगे’, ‘मैं वहीं हताशा के मारे सड़क किनारे बैठ गया। फिर यकायक उठा और एक बार फिर दुख और गुस्से के मारे पूरी ताकत से चिल्लाया, कल्लो तुम बिक गईं’।
इसी कहानी संग्रह कि अन्य कहानियां जैसी कि ‘रामदेई, हमने टीबी नई देखी’, ‘जब कछु नहीं तो चोरी ही सई’, ‘धन्ना तक बा की राधा संगे गोल हो गओ’, ‘सात खून माफ हैं’, ‘दूध फैक्ट्री से लाओ न’, ‘ऐसो कोई नहीं बोलो हमसे आज तक’, ‘डरियो तो डरियो मनो अब मत डरियो’, ‘खूंटा की लुगाई भी बह गई’, ‘तुम तो मेरी चौथी बेटी हो’, ‘बसंत साले हे मार’ बहुत ही अच्छी बन पड़ी हैं और अपने भीतर कितना कुछ समेटे हैं। उपसंहार के ‘वे दो पत्थर’ में एक तरुण निश्चल प्रेम का ऐसा अनोखा चित्रण, प्रेम की एक असीम पराकाष्ठा जैसा है। इस कहानी के ये वाक्य, ‘पानी बहता है और फेंके गए भारी पत्थर वहीं ठहर जाते हैं। पत्थर का गुण होता है पानी के गहरे तल तक में जाना। तब से अब तक इन दो दशकों तक नदी सतत् बहती जा रही है। सिंदूरी की धार ज्यों की त्यों बनी हुई है और वे दो पत्थर भी वहीं रह गए हैं। नदी की तलहटी में। सिंदूरी के भीतर गहरी स्मृतियों में धंस कर’, कितनी गहराई, मर्म और दार्शनिकता सहेजे हुए हैं। यकीनन, श्री शिरीष जी साधुवाद के पात्र हैं।
कुल मिलकर शिरीष खरे द्वारा रचित यह एक ऐसा कहानी संग्रह है, जिसकी मूल आत्मा एक बहती नदी ‘सिंदूरी’ में निहित है और शरीर ‘मदनपुर’ गांव है। मेरा विश्वास है कि इसकी सभी कहानियां इसके पाठक वर्ग को बहुत ही पसंद आएंगी और प्रभावित करेंगी।
समीक्षक- – भावेश वशिष्ठ