गुुरु अर्जुन देव: गुरु ही मां है और गुरु ही पिता

In अध्यात्म
May 08, 2023
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गतांक से आगे… भारतीय अध्यात्म परम्परा में ‘गुरु’ का महत्त्वपूर्ण स्थान है।  गुरुओं ने भी अहंकार के विनाश, ब्रह्मज्ञान, हरि-भक्ति आदि की उपलब्धि के लिए गुरु-कृपा, गुरु-उपदेश व गुरु-सेवा को आवश्यक माना है। वस्तुत: गुरुओं ने तो गुरु और ब्रह्म को एक रूप माना है। गुरु अर्जुनदेव ने भी कहा है कि ”गुरु और ब्रह्म एक रूप हैं, गुरु पारब्रह्म परमेश्वर का ही रूप है। अत:, हरि रूप गुरु को नमस्कार करना चाहिए-

गुरु परमेसरु एकु है सभि महि
रहिआ समाई। (4/30/100 सिरी राग म. 5)


गुरुदेव सतिगुरु पार ब्रह्मु
परमेसरु गुरुदेव।
नानक हरि नमसकारा।। 1।। (गउडी बावन अखरी म. 5)”

उनका कथन है कि ”गुरु ही मां है, गुरु ही पिता है, गुरु-मालिक प्रभु का रूप है; गुरु मोह-माया-अज्ञान के अंधकार को नष्ट करने वाला; गुरु ही मित्र है, गुरु ही संबंधी और भाई है। गुरु दाता है जो प्रभु का नाम देता है; गुरु शंाति, सत्य और बुद्धि का स्वरूप है, गुरु का स्पर्श पारस से भी श्रेष्ठ है, गुरु सर्वोत्तम श्रेष्ठ तीर्थ है, अमृत सरोवर है, गुरु-ज्ञान का स्नान सभी तीर्थों के स्नान से श्रेष्ठ है, वह समस्त पापों को दूर करने वाला, विकृत व्यक्तियों को पवित्र करने वाला है। गुरु का दिया हुआ हरि-नाम स्मरण करके ही भव-सागर से पार उतरा जा सकता है। ”गुरु गहन गम्भीर, सुखों का सागर और पापों का नाश करने वाला है। गुरु अगम-अगोचर है, सत्य निर्मल है, वह माया के तीनों गुणों से परे है, वह अनिर्वचनीय है, गुरु कत्र्ता है वह डूबते जीव को उबारने में समर्थ है, वह संसार की चिंताओं की लहरों से भरे समुद्र से पार कराने वाला जहाज है, गुरु की इच्छा से बाहर कुछ भी नहीं है। मनोवांछित फल सतिगुरु की कृपा से ही मिलते हैं। तृष्णा व विषय-वासनाओं की अग्नि को सतिगुरु ही बुझा सकता है। जीव के अहंभाव, क्रोध, लोभ, मोह को वही नष्ट कर सकता है। गुरु सब कुछ करने में समर्थ है। सतिगुरु के मिलने पर जीव के सब दुख समाप्त हो जाते हैं। मन में आध्यात्मिक आनंद का प्रकाश फैल जाता है। गुरु की महिमा का कोई अन्त नहीं है। विश्व में गुरु के समान कोई महान नहीं है।

”गुरु कृपा से नाम-दान के द्वारा जीवन पवित्र हो जाता है। ‘गुरु-सेवा’ से तथा ‘गुरु की शरण’ में जाने से और ‘गुरु के आदेशानुसार’ आचरण करने से यमराज के दण्ड का कोई भय नहीं रहता। जीव का जन्ममरण व आवागमन समाप्त हो जाता है और जीव को सचखण्ड में वास मिलता है। गुरु-उपदेश ही वास्तविक सर्वोत्तम शाश्वत सुख है। गुरु की शरण में ही हरि मिलन सम्भव है। वे प्राणी बड़े भाग्यशाली हैं, जिन्हें सतिगुरु प्राप्त होता है।’

सत्संग

‘गुरुमत’ में ‘सत्संगति’ एवं ‘सेवा’ का भी विशेष महत्त्व है। गुरु अर्जुनदेव की मान्यता है कि सत्संगति में परमात्मा स्वयं वास करता है। संतों का जहां निवास है, वहीं बैकुंठ है। साधु-संगति से जीव निर्मल होता है और उसकी आवागमन की फांसी सदा के लिए कट जाती है। सत्संगति बड़े सौभाग्य से मिलती है, सत्संगति एवं संतों की सेवा से मनुष्य सभी सुख प्राप्त कर लेता है और उसके सभी मनोरथ पूरे हो जाते हैं।

काम, क्रोध, लोभ, अहंकार, मोह आदि पांचों डाकू ‘सत्संगति’ में रहने से ही काबू में आते हैं। सत्संगी जीव ‘गुरुमुखÓ बन जाते हैं, वे सत्य, संतोष, दया, धर्म आदि गुणों को धारण करते हैं। सत्संग से उन्हें हरि-नाम धन की प्राप्ति होती है। संतों की चरण-घूलि के स्पर्श से कुबुद्धि नष्ट हो जाती है और सभी सुख प्राप्त होते हैं। अत:, जो मनुष्य सत्संगति से खाली है, उसका शरीर मुर्दा है, वह मनुष्य जन्म-मरण के चक्र में पड़ा  रहता है, योनियों के दुखों के कारण उसका आत्मिक जीवन दुर्बल होता जाता है।

साधना मार्ग

गुरु अर्जुनदेव ने ज्ञान, योग, कर्म, वैराग्य के महत्त्व को भी स्वीकार तो किया है, किंतु उन्होंने ‘भक्ति’ को ही सर्वश्रेष्ठ साधना-मार्ग माना है। योग, कर्म, वैराग्य, यज्ञ, जप, तप, होम, तीर्थ-स्थान आदि सभी की सार्थकता भी हरि-नाम-स्मरण से ही है और संसार-सागर को पार करने का माध्यम भी प्रभु-भक्ति एवं नाम-स्मरण ही है। उनका कथन है कि ‘परमात्मा की भक्ति मधुर स्वभाव वाली स्त्री है जो अनुपम रूपवती तथा शुभ-लक्षणों वाली है, जिस घर में वह वास करती है, वह घर शोभावाला बन जाता है। गुरु को मिलकर मैंने श्रेष्ठ करनी रूपी (उत्तम आचरण वाली) स्त्री प्राप्त की है, जो प्रत्येक स्थान पर सुन्दर लगती है, यह बत्तीस शुभ-लक्षणों वाली है, सर्वथा स्थिर परमात्म नाम इसकी संतान है, वह आज्ञाकारिणी है, चतुर है, रूपवती है, कंत के मन की प्रत्येक इच्छा पूर्ण करती है, समूचे परिवार में ‘भक्ति’ स्त्री श्रेष्ठ है। वह हृदय रूपी घर अत्यंत भाग्यशाली है, जिस घर में यह दर्शन देती है, उस व्यक्ति की आयु सुखपूर्वक व्यतीत होती है, जिसके हृदय में यह निवास करती है।”

गुरु अर्जुनदेव ने ‘दास्य भक्ति’ एवं ‘प्रेमा-भक्ति’ दोनों का निरूपण किया है। एक ओर उन्होंने परमात्मा को ‘स्वामी’, ‘साहिब’, ‘ठाकुर’, ‘मालिक’, ‘प्रभु’ कहकर उनके माहात्म्य का वर्णन किया है तथा अपने को उनका ‘सेवक’, ‘दास’, ‘चेरा’ मानकर उसकी ‘शरण में जाने’, ‘चरण वंदना करने’, ‘गुण-स्तुति करने’, ‘सेवा करने’ की अभिलाषा प्रकट की हैं और अपना दैन्य व्यक्त किया है। परमात्मा की महानता एवं महत्ता का तथा अपनी दीनता, लघुता, श्रद्धा व भक्ति का निरूपण करते हुए गुरु जी कहते हैं कि हे प्रभु! तू ही मेरा सखा है, तू ही मेरा मित्र है, तू ही मेरा प्रियतम, तू ही मेरी प्रतिष्ठा है, तू ही मेरा आभूषण है, तू मेरा सुन्दर लाल है, तू मेरा प्राण है, तू मेरा साहब है, तू मेरा खान है,  जैसे तू मुझे रखता है, मैं वैसे ही रहता हूं। तेरे बिना मैं एक पल भी नहीं रह सकता। मैं वही करता हूं जो तेरा हुकम होता है, तू ही मेरे लिए दुनिया की नौ निधि है, भण्डार है, तू ही मेरी ओट है, तू ही मेरा सहारा है, तू मेरा सर्वस्व है। मेरा तुझ से ही पे्रम है।

दूसरी ओर प्रभु को पति और अपने को उनकी स्त्री मानकर प्रभु-पति के प्रति अपनी प्रणयानुभूति, मिलनाकांक्षा, दर्शन-अभिलाषा, विरह-व्यथा एवं समर्पण की भावना उत्कटता से व्यक्त की है। ‘पे्रमा-भक्ति’ के महत्त्व का प्रतिपादन करते हुए गुरु जी कहते हैं कि प्रभु-पति ने मुझे (अज्ञानता रूपी) सास से अलग कर दिया है, मेरी देवरानी-जेठानी (ऐषणाएं व तृष्णा आदि) दुख-क्लेश से मर गई हैं।

अब मुझे जेठ धर्मराज की भी परवाह नहीं है, चतुर पति ने मुझे सभी संबंधियों से (विकारों से) बचा लिया है। प्रभु-प्रियतम से भेंट होने पर सर्वप्रथम अहंकार के प्रति लगाव छोड़ दिया, फिर लोक-व्यवहार की रस्मों को त्याग दिया, फिर माया के तीनों गुण छोड़कर वैरी और मित्र एक जैसे समझ लिए। मैंने आत्मिक स्थिरता की गुफा में अपना आसन जमा लिया है और मेरे भीतर ज्योति रूप परमात्मा के मिलाप का निरंतर बजने वाला बाजा बजने लगा है। वह जीवात्मा धन्य है जो प्रभु पति के पे्रम रंग में रंगी हुई है।

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