हमारे पास ढेरों ऐसे अविश्वसनीय प्रसंग हैं जो प्रेरक भी हैं, प्रामाणिक हैं, मगर उन्हें व्यापक स्तर पर याद करने की फुर्सत न मीडिया के पास है, न ही बुद्धिजीवियों या सियासतदानों के पास। अतीक अहमद के प्रकरण पर एक अनुमान के अनुसार इलेक्ट्रॉनिक, प्रिंट व डिजिटल मीडिया ने लगभग 600 घंटे खर्च किए और यह सिलसिला अभी जारी रहेगा। इसी बीच कोई आश्चर्य नहीं कि उसे इतना ज्यादा महिमामंडित कर दिया जाए कि उसके स्मारक बनने लगें। पटना में तो उसके लिए ‘अमर रहे’ की नारेबाज़ी भी हो चुकी है। वैसे आजकल तीन ऐसी शख्सियतों को समर्पित होना चाहिए जिन्होंने भक्ति, अध्यात्म, दर्शन व साहित्य को हज़ारों पृष्ठों की समग्री दे डाली थी।
चलिए अतीक अहमद-प्रकरण को थोड़ा हाशिए पर सरकाएं और उन तीन महान संतों को याद कर लें जिनकी जन्म-तिथि आज ही के दिन है। इस त्रिमूर्ति में संत कवि सूरदास हैं, कृष्ण काव्य के शिखर कवि रसखान हैं और धन्ना भगत हैं। इन तीनों के बारे में थोड़ी-थोड़ी चर्चा कर लेंगे तो यकीन जानिए आपको थोड़ा सुकून भी मिलेगा और आसपास के तनाव से मुक्ति भी मिलेगी।
पहले सूरदास, महान संत कवि जिनका जन्म सीहीग्राम (वर्तमान सेक्टर-8, फरीदाबाद) में हुआ था। हरियाणा सरकार उनकी स्मृति में पांच लाख रुपए का सम्मान-पुरस्कार भी देती है।
सूर स्मारक भी जन्मस्थली पर इस दिन यज्ञ आदि के बाद सूरदास के भजनों पर आधारित एक सांस्कृतिक कार्यक्रम भी होता है। यह आयोजन वहां के एक ट्रस्ट व वशिष्ठ परिवार द्वारा आयोजित होता है। अतीत में हरियाणा साहित्य अकादमी लगभग हर वर्ष विशेष साहित्यिक समारोह भी करती रही है। मगर इस वर्ष अकादमियों के नवजात विलय के कारण शायद सूर-जयंती कुरुक्षेत्र में ही मनाई जाएगी।
बहरहाल, संत सूरदास के तीन मुख्य संकलन प्राप्य हैं। सूरसागर, साहित्य लहरी व सूर सारावली। उनकी रचना भ्रमरगीत को आज भी पूरे ब्रज में गाया एवं मंचित किया जाता है। उनके दो पद आप भी गुनगुना लेंगे तो मन निर्मल हो जाएगा-
ऊधो! मन नाही दस बीस
एक हुतो, स्यो, गयो श्याम संग
कोऊ आराधै ईस
ऊधो! मन नाहीं दस बीस
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मेरो मन अनत कहां सुख पावै
जैसे उडि़ जहाज को पंछी
फिरि जहाज पे आवै
मेरा मन…
जन्मांध होते हुए भी सूर ने एक लाख से भी अधिक पद कैसे गाए, रचे, कुछ भी विश्वसनीय नहीं लगता। मगर यह सब प्रामाणिक हैं। उनकी अकबर से भेंट व कुछ अन्य प्रसंग भी चर्चा में बने रहते हैं। ‘मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो’ सरीखे पद तो लगभग सभी शास्त्रीय एवं सुगम संगीत गायकों ने गाए हैं। सूरदास पर विभिन्न विश्वविद्यालयों में 680 के लगभग शोध प्रबंध भी लिखे गए।
इसी शृंखला में पहले धन्ना भगत और फिर रसखान। धन्ना भगत को इस बार हरियाणा में राजकीय रूप में भी याद किया जा रहा है। साख्य-भक्ति के प्रति इस अनूठे समर्पित कृष्ण भगत का जन्म वर्ष 1415 में राजस्थान के टोंक जिले के एक गांव में हुआ था। सीधे सादे किसान परिवार से थे धन्ना भगत। मगर झुकाव कृष्ण भक्ति की ओर था। उसी ‘रौ’ में वह बचपन में ही बनारस चले गए थे। वहां स्वामी रामानंद से दीक्षा ली और कृष्ण भक्ति में रम गए। किंवदंतियां हैं कि उनके समर्पण भाव व साख्य भाव पर स्वयं ईश्वर भी मोहित हो गए। कुछ वर्षों तक धन्ना के खेतों में ईश्वर ने ही हल चलाए, उसकी गऊएं भी चराईं और उसे भक्ति-भाव का अर्थ भी समझाया था। रादौर के समीप टोपराकलां में व कुछ अन्य स्थानों पर ‘धन्ना भगत’ के मंदिर भी है। धन्ना भगत पर शोध-कार्य अभी भी हो रहे हैं लेकिन उनकी रचनाओं पर शोध अधूरा है और विद्वानों व शोधार्थियों का मोहताज है। वैसे लोकगीतों व रागनियों में धन्ना भगत की यादें अमर हो ही चुकी हैं।
तीसरे स्थान पर हैं कृष्ण काव्य में रचे-बसे सैयद इब्राहीम खान (1546-1628) उर्फ रसखान। कृष्ण भक्त और जीवन का महत्वपूर्ण भाग वृंदावन में ही बिताने वाले इस सूफी कवि को पुष्टिमार्ग का भी महत्वपूर्ण स्तम्भ माना जाता है। प्रसंगवश यह मानना भी रूचिकर होगा कि रसखान महाकवि संत सूरदास, गोस्वामी तुलसीदास व रहीम के समकालीन थे। एक किंवदंती यह भी है कि गोस्वामी तुलसी दास कृत ‘मानस’ के आरंभ से अंत तक यहां तक कि संशोधन तक के कर्ताधर्ता महाकवि रसखान थे। कुछ विद्वानों की तो मान्यता ही यही है कि ‘तुलसी-आलवार’ संतों के वंशज रामानुजाचार्य की दार्शनिक मान्यताओं को सुरक्षित रखने का श्रेय भी कवि रसखान को ही जाता है।
हमारे अधिकांश भक्तिकालीन संत कवियों की ही तरह रसखान का जीवन सोपान भी विवादों में घिरा रहा है। अपने समय के प्रख्यात विद्वान मिश्र-बंधुओं का कहना है कि रसखान का जन्म 1548 में हुआ और उन्होंने वृंदावन में ही अंतिम सांस वर्ष 1628 में ली थी।.
डॉ. हज़ारी प्रसाद द्विवेदी का मानना था कि कि रसखान एक बड़े जागीरदार के बेटे थे और खड़ी बोली, फारसी व संस्कृत पर उनका समान अधिकार था। अपने अध्ययनकाल के भागवतपुराण पढ़ते समय यह कृष्ण-भक्ति की ओर उन्मुख हुए थे। गोस्वामी तुलसीदास ने अपने समय यह साहस किया था कि ‘रामचरितमानस’ के माध्यम से वैष्णव और शैव द्वन्द्व में रामंजस्य स्थापित कर सके। जानते हैं न इनका पुल कौन बने हैं? उत्तर स्पष्ट है- पुष्टिमार्गीय कृष्णभगत कवि रसखान।
रामानुजाचार्य और रामानंद के विशिष्टाद्वैतवाद दर्शन की दार्शनिक मान्यताओं को बिना व्याघात पहुंचाए रसखान ने सुरक्षित रखा। मानस में राम और शिव एक-दूसरे के भक्त हैं। इसका श्रेय भी कुछ हद तक रसखान को दिया जाना चाहिए। रसखान के महत्व पर आज भी उतनी चर्चा नहीं होती जितनी अन्य कृष्ण-भक्त कवियों की होती है। जबकि वर्तमान साम्प्रदायिक विद्वेष के माहौल में इस चर्चा को आगे बढ़ाया जाना चाहिए। आखिर रसखान भी तो वल्लभ सम्प्रदाय एवं पुष्टिमार्ग से गहरे तक जुड़े हुए थे। (फोटो: सूरदास, रसखान, धन्ना भगत)
साभार: डॉ. चन्द्र त्रिखा